बलात्कार एक ऐसा अपराध है जिसमें पुरुष की गलतियों की सजा सदियों से स्त्रियों को मिलती रही है। आज 21वीं सदी में भी स्त्री उत्पीड़न का यह दौर थमा नहीं, पहले से कुछ ज्यादा ही बढ़ता जा रहा है। अब तीन-तीन, छह-छह साल की बच्चियां भी इसकी शिकार होने लगी है। बावजूद इसके कि आज देश में बलात्कार के लिए कठोरतम सजा का प्रावधान है और कई बलात्कारियों को फांसी पर भी लटकाया गया है, पर इस से हालात में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है। इसकी एक बड़ी वज़ह यह है कि हमारा सारा ध्यान बलात्कार के लिए दिए जाने वाले दंड पर रहा है। इसे बढ़ावा देने वाली वज़हों पर हमने गंभीरता से कभी सोचा भी नहीं है।
बलात्कार आम अपराध से ज्यादा एक मानसिक विकृति, एक भावनात्मक विचलन है। इस विकृति को बढ़ाने में अश्लील बाजारू साहित्य, इन्टरनेट पर सहजता से उपलब्ध अश्लील वीडियो , शराब और ड्रग्स की बड़ी भूमिका रही है।
पुलिस में तीन दशक के कार्यकाल में मेरा अपना अनुभव रहा है कि देश में 90% प्रतिशत बलात्कार की घटनाओं के लिए ये चीज़ें ही ज़िम्मेदार हैं। स्त्रियों के साथ यौन अपराध पहले भी होते रहे थे, लेकिन इन्टरनेट पर अश्लील वीडियो की सर्वसुलभता के बाद इनके आंकड़े आसमान छूने लगे हैं। स्त्री को भोग और मज़े की चीज़ के रूप में परोसने वाली इन फिल्मों का कच्चे और अपरिपक्व दिमाग के बच्चों, किशोरों और अशिक्षित या अल्पशिक्षित युवाओं पर ज्यादा दुष्प्रभाव पड़ता है। ये फ़िल्में लोगों को न केवल विकृत सेक्स, जबरन सेक्स, हिंसक सेक्स, अप्राकृतिक सेक्स, चाइल्ड सेक्स, पशु सेक्स और सामूहिक बलात्कार के लिए, बल्कि अगम्यागमन – पिता-पुत्री, मां-बेटे, भाई-बहन के बीच भी शारीरिक रिश्तों के लिए उकसाती हैं।
हालत यह है कि अगर आप सौ किशोरों और युवाओं के मोबाइल फोन चेक करें तो उनमें पचास में अश्लील वीडियो क्लिप्स ज़रूर मिलेंगे। ऐसी फिल्मों और साहित्य के आदी लोग अपने दिमाग में सेक्स का एक ऐसा काल्पनिक संसार बुन लेते हैं जिसमें स्त्री व्यक्ति नहीं, देह ही देह नज़र आने लगती है। नशा ऐसे लोगों के लिए तात्कालिक उत्प्रेरक का काम करता है जो लिहाज़ और सामाजिकता का झीना-सा पर्दा भी गिरा देता है। मुझे अपने सेवा काल में कोई ऐसा बलात्कारी नहीं मिला जो अश्लील किताबों और फिल्मों का शौक़ीन न हो या जिसने बगैर नशे के बलात्कार जैसा कुकृत्य किया हो।
अगर बलात्कार पर काबू पाना है तो आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध अश्लील सामग्री को कठोरता से प्रतिबंधित करने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। कुछ लोगों के लिए अश्लील फ़िल्में देखना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मसला हो सकता है, लेकिन जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता सामाजिक नैतिकता और जीवन-मूल्यों को तार-तार कर दे, उस स्वतंत्रता को निर्ममता से कुचल देना ही हितकर है।