पिछले दिनों भारत सरकार ने इंटरनेट ऑपरेटरों से कहा था कि वे बच्चों के साथ अश्लील हरक़तों यानी उनके शारीरिक शोषण वाले वीडियो हटा दें, इस तरह की बहुत सी सामग्री इंटरनेट पर प्रतिबंधित की भी गई, लेकिन ऑपरेटरों ने साफ़ कर दिया कि सारी अ-श्लील सामग्री का इंटरनेट से सफ़ाया नहीं किया जा सकता, अश्लील सामग्री हटाने का मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा, कोर्ट ने टिप्पणी भी की कि वो लोगों के बेडरूम में घुस कर ये नहीं जान सकता कि वहां क्या हो रहा है, हालात ये हैं कि अगर आप बच्चों के हाथ में स्मार्ट फ़ोन पकड़ा रहे हैं, तो आप उन्हें अनजाने में ही सही, एक तरह से धड़ल्ले से अश्लील वीडियो या लिखित सामग्री देखने, सुनने, पढ़ने का या उनकी उम्र के उनके दूसरे दोस्तों को दिखाने, सुनाने और पढ़वाने का लाइसेंस दे रहे हैं
हमारे देश में बच्चों से जुड़ी अश्लील सामग्री तलाशने और उसे दूसरों को भेजने में दिल्ली, अमृतसर, लखनऊ, त्रिशूर और अलापुझा जैसे शहर सबसे आगे हैं, अमृतसर से 01 जुलाई, 2016 से 15 जनवरी, 2017 के बीच चार लाख, 30 हजार से ज़्यादा बच्चों से जुड़े अश्लील वीडियो शेयर किए गए, कानपुर, आगरा, बैराकपुर और दीमापुर ऐसे शहर हैं, जहां ऐसे वीडियो देखने-दिखाने की ललक बढ़ती जा रही है, जबिक आठ-नौ महीने पहले तक ऐसा नहीं था, पूरी दुनिया में बच्चों से जुड़े अश्लील वीडियो कारोबार का टर्नओवर जानकर आप कभी यक़ीन ही नहीं करेंगे कि ये बाज़ार इतना बड़ा है, दूसरा पहलू ये है कि यूनीसेफ़ की रिपोर्ट बताती रही हैं कि भारत में आधे से ज़्यादा बच्चे किसी न किसी तरह की शारीरिक हिंसा के शिकार हैं, बच्चों के शारीरिक शोषण से जुड़े अश्लील वीडियो ही उनके साथ होने वाली वारदात की बड़ी वजह हैं

हालांकि ऐसे वीडियो देखना या दूसरों को भेजना ग़ैरज़मानती क्राइम है, लेकिन परिवार की असावधानी की वजह से बच्चों में भी ऐसे वीडियो देखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, तेज़ी से ऊंचाइयां चढ़ रही तकनीक के ताज़ा दौर में ये संभव नहीं है कि बच्चों को स्मार्ट फ़ोन दिए ही नहीं जाएं, तो फिर क्या किया जाए कि बच्चे दिमाग़ी तौर पर मज़बूत होने से पहले ही अ-श्लीलता के दलदल में न धंस पाएं? इसका एक तरीक़ा तो यही है कि बच्चों पर जासूस की तरह नज़र नहीं रखी जाए, बल्कि उनके परिपक्व दोस्त बनकर ही उन्हें जागरूक किया जाए, इस सिलसिले में स्कूली स्तर से शिक्षा की बात लंबे अर्से से हो रही है, लेकिन कोई स्पष्ट नीति नहीं बन पाई है, लेकिन अ-श्लीलता की तरफ़ बढ़ते समाजों की मानसिक विकृतियों के प्रति जागरूक होने का समय आ गया है, लिहाज़ा इस तरफ़ सरकारों और सामाजिक स्तर पर बहुत संवेदनशीलता से सोचने की ज़रूरत है
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