कश्मीर हुर्रियत काँफ़्रेंस

दो-तीन अगस्त की रात तड़के कश्मीर के शोपियां में ऑपरेशन ऑलआउट के तहत मुठभेड़ के दौरान सेना के एक मेजर और जवान शहीद हो गए। किसी भी देशभक्त भारतीय को यह ख़बर अच्छी नहीं लगेगी। देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चिर-परिचित अंदाज़ में आग उगल रहा है। टीवी चैनलों में बेहद उग्र बहसें जारी हैं, जिनमें सियासी पार्टियों के नुमाइंदे और पाकिस्तान परस्त कथित ‘कश्मीर कॉज़’ से जुड़े भारत में आराम से रह रहे लोग हिस्सा ले रहे हैं। ऐसे में हैरत की बात है कि जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ़्ती चाहती हैं कि आतंकियों के मददगार हुर्रियत काँफ़्रेंस से बातचीत की जानी चाहिए। मेरा सवाल फिर वही है कि पाकिस्तान में शामिल होने का एकमात्र एजेंडा रखने वाले किसी भी संगठन के नेताओं से बातचीत क्यों की जानी चाहिए? कश्मीर में हुर्रियत काँफ़्रेंस की हैसियत क्या है, यह समझना ज़रूरी है।

पीडीपी-बीजेपी की सरकार की मुखिया महबूबा मुफ़्ती अलगाववादियों से बातचीत की वक़ालत कर रही हैं, तो उन्हें कोई न कोई ऐसा तर्क ज़रूर सामने रखना चाहिए, जिससे साबित हो सके कि कश्मीर में हुर्रियत नेताओं का कोई सकारात्मक वजूद है भी। जो हर हाल में माने बैठे हैं कि वे पाकिस्तान के हिस्से हैं, उनसे बातचीत अगर की भी जाए, तो उसका क्या कोई नतीजा निकलेगा? बातचीत से तो बीच का ही रास्ता निकलता है। हुर्रियत काँफ़्रेंस को अगर बातचीत की मेज़ पर आना है, तो उसे यह ज़िद छोड़ने का सार्वजनिक ऐलान करना पड़ेगा कि वो पाकिस्तान के साथ मिलने का दिवास्वप्न देखना छोड़ भी सकती है। ऐसा ऐलान अगर हुर्रियत कर भी दे, तो भी बातचीत करना या नहीं करना देश की सरकार का फ़ैसला होगा, कोई जबरन या बंदूकें तानकर किसी को बातचीत के लिए मजबूर कैसे कर सकता है?

दूसरी बात, हुर्रियत काँफ़्रेंस जम्मू कश्मीर में चुनावों के बहिष्कार की अपील करता है। लेकिन क्या कश्मीरियों ने एक बार भी उसकी चुनाव बहिष्कार की कॉल का सौ फ़ीसदी समर्थन किया? ज़्यादातर लोग वोट डालने निकलते हैं। विधानसभा चुनाव, 2014 में तो पूरे राज्य में 65.52 प्रतिशत वोट डाले गए। पांचवें चरण में सर्वाधिक 76 फ़ीसदी और चौधे चरण में सबसे कम 49 फ़ीसदी वोट पड़े। चुनाव बहिष्कार करने वाले क़रीब 40 संगठनों को छोड़ दें, तो पूरे राज्य में निर्दलियों के अलावा 34 पार्टियां चुनाव में शामिल हुईं। नोटा के तहत भी काफ़ी लोगों ने वोटिंग मशीन का बटन दबाया।

हुर्रियत काँफ़्रेंस

ऐसे में क्या हुर्रियत काँफ़्रेंस को अपने गिरेबां में झांककर देखने की ज़रूरत नहीं है कि उसकी चुनाव बहिष्कार की अपील का क्या हश्र हुआ? राज्य के ज़्यादातर लोग वोट डालने निकले। जो नहीं निकले, वे सारे के सारे हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के असर की वजह से नहीं निकले, यह मानना मूर्खता होगी। अगर लोग ही हुर्रियत के वजूद को बुरी तरह नकारते हैं, तो फिर केंद्र सरकार को उसे तवज्जो क्यों देनी चाहिए?

दरअस्ल, ग़ैर एडीए सरकारों ने हुर्रियत के अलगाववादियों के बिना सोचे-समझे सिर पर बैठाया। यह भी कहना ग़लत नहीं होगा कि बहुत सोच-समझ कर सिर पर बैठाया। ये दोनों विरोधाभासी बातें हैं। लेकिन समझने की ज़रूरत है। घाटी में ख़ून-ख़राबा बढ़ने के बाद जब अपनी ओर से कोशिश करने का दबाव बढ़ा, तो ग़ैर-एनडीए सरकारों ने हुर्रियत नेताओं को तरज़ीह देना शुरू किया। बहुत सी ख़बरें मिल जाएंगी, जिनमें कहा गया है कि उन्हें तवज्जो देकर देश के ख़ज़ाने की बंदरबांट की गई।

इस्लामाबाद और पीओके में भी हुर्रियत संगठन सक्रिय है। उनके भी हित सधे। पाकिस्तान को भी कश्मीर में गीलानी एंड पार्टी के रूप में सधे हुए मोहरे मिल गए। वहां से भी पैसा आने लगा, यहां भी सुर्ख़ियों में रहने लगे, तो स्वार्थी अलगाववादियों को लगने लगा कि वाक़ई उनकी ज़रूरत दोनों तरफ़ से है। अब केंद्र की एनडीए सरकार ने अगर राष्ट्र हितों के हिसाब से अलगाववादियों और पाकिस्तान को आइना दिखा दिया है, तब उनकी दुविधा बढ़ गई है। यही वजह से पिछले साल, जुलाई के बाद से सैनिक ठिकानों पर हमले और कश्मीर घाटी के नागरिक इलाक़ों में बढ़ी हिंसा हताशा और बौखलाहट के रूप में नज़र आ रही है।

पत्थरबाज

कश्मीर घाटी में अलगाववाद के अलाव सुलगाने वाले हुर्रियत नेता क्या कश्मीरी युवाओं से भेदभाव नहीं कर रहे हैं? वे पत्थरबाजों को तो शह देते हैं, लेकिन देश पर जान न्यौछावर करने वाले कश्मीरी बेटों की शहादत पर एक शब्द बोलना भी गंवारा नहीं समझते। हुर्रियत काँफ़्रेंस की आधिकारिक वेबसाइट पर भारतीय फ़ौज के जांबाज़ लेफ्टिनेंट उमर फ़ैयाज़ की कायरता से हत्या किए जाने की निंदा नहीं की गई। जबकि इससे एक दिन पहले 8 मई को हुर्रियत ने पुरज़ोर मांग की कि हिंसा करने के दौरान गिरफ्तार किए गए सभी कश्मीरी छात्र को तुरंत रिहा किए जाएं। क्या गीलानी, मीरवाइज़ और यासीन मलिक 23 साल के लेफ़्टिनेंट उमर फ़ैयाज़ को कश्मीर का बेटा नही मानते? अगर ऐसा है, तो उन पर धिक्कार है। कश्मीर का बेटा फ़ैयाज़ पूरे भारत का लाड़ला था और सभी भारतीयों को उस पर हमेशा गर्व रहेगा।

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