Hurriyat Conference

यह सवाल अक्सर सिर उठाता है कि भारत सरकार को कश्मीर समस्या के हल के लिए हुर्रियत नेताओं से बात करनी चाहिए। लेकिन कई बड़े सवाल ये हैं कि भारत को ऐसा क्यों करना चाहिए? पूरे विवाद में हुर्रियत नेताओं की हैसियत आख़िर है क्या? क्या हुर्रियत नेता कश्मीर के लोगों की नुमाइंदगी किसी भी स्तर पर करते हैं? सीएम महबूबा मुफ़्ती बातचीत के लिए केंद्र पर कितना भी दबाव बनाएं, आतंकियों और उनके समर्थकों को बातचीत की दरकार बिल्कुल नहीं है। उन्हें लगता है कि वे ताक़त के बल पर सरकार को झुकाने का माद्दा रखते हैं। ऐसे लोगों को यह सवाल ख़ुद से और अपने आकाओं से पूछना चाहिए कि क्या वे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की ताक़तवर फ़ौज को बंदूक के ज़रिए झुका सकते हैं?

कश्मीर में टैरर फ़ंडिंग के ख़िलाफ़ एनआईए की कड़ी कार्रवाई से हुर्रियत नेता बौखलाए हुए हैं। ऐसे में महबूबा मुफ़्ती चाहती हैं कि केंद्र नर्म रवैया अख़्तियार करे। लेकिन केंद्र ने विघटनकारियों को ठोस संदेश दिया है कि क़ानून के मुताबिक़ कार्रवाई में नर्मी नहीं बरती जाएगी। साथ ही भारतीय सुरक्षा बलों के साथ जम्मू कश्मीर पुलिस के जांबाज़ घाटी में आतंकियों को चुन-चुन ढेर कर रहे हैं।

जब भी कश्मीर समस्या का ज़िक्र आम भारतीय के सामने होता है, तो हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का नाम भी आता है। लोग हुर्रियत के नाम से अच्छी तरह वाक़िफ़ भले हों, उन्हें यह नहीं पता कि कश्मीर समस्या को हल करने की दिशा में इस संगठन की भूमिका असल में है क्या? उन्हें नहीं पता कि ऑल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस यानी एपीएचसी नाम के असल नाम वाले इस संगठन की कोई सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक या कूटनैतिक औक़ात है भी कि नहीं?

90 के दशक की शुरुआत में आतंकी हिंसा का दौर चालू हुआ और ग़ौरतलब है कि इसके बाद ही यानी कश्मीर समस्या की पैदाइश के क़रीब 46 साल बाद 9 मार्च, 1993 को ऑल पार्टीहुर्रियत कॉन्फ्रेंस का गठन किया गया। यानी 46 साल तक कश्मीर में भारत के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाने वाले हुर्रियत के विभिन्न घटकों को घाटी में बंदूकों, हथगोलों, मोर्टारों की तड़तड़ाहट शुरू होने के तीन साल बाद ही अलगाववादी विचारों की पुख़्तग़ी के लिए ये होश आ गया कि उन्हें एकजुट हो जाना चाहिए। क्या यह महज़ संयोग हो सकता है?

साफ़ है कि फ़ौज के दबदबे वाली पाकिस्तानी हूक़ूमत ने, वहां की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने और पाकिस्तान में चलाए जा रहे आतंकी कैंपों के शातिर दिमाग़ आकाओं ने एकजुट होकर 1989 के आख़िर में कश्मीर में आतंकी भेजने शुरू किए। जब यहां स्लीपर सेल विकसित हो गए, कुछ कश्मीरी नौजवानों को बरगला कर उनके हाथों में हथियार पकड़ा दिए गए, तो अलगाववादी विचारों को संगठित करने की साज़िश रची गई। हाथ में हथियार तब तक कारगर नहीं हो सकता, जब तक दिमाग़ में अलगाव जैसा कोई नकारात्मक मक़सद नहीं कुलबुलाए। ये समझना मुश्किल नहीं है।

गठन के 24 साल बाद अब हुर्रियत कॉन्फ्रेंस में काफ़ी मतभेद उभर चुके हैं। समय-समय पर ये मुखर भी होते हैं। हुर्रियत के धुर कट्टरपंथी धड़े के मुखिया सैयद अली शाह गीलानी के साथ 24 धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक संगठन हैं। इस धड़े को हुर्रियत जी के नाम से जाना जाता है। मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ की अगुवाई वाला गुट भी है, जिसे हुर्रियत एम के नाम से जाना जाता है। अगर हम कश्मीर घाटी के राजनैतिक इदारों पर ध्यान दें, तो ऑल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के अलावा वहां कुछ निर्दलीय नेता भी भारत के विरोध में मुखर हैं। इसके अलावा पीडीपी, बीजेपी, कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस के अलावा वामपंथी नेता भी सक्रिय हैं।

वामपंथियों का बेशक कोई जनाधार भले नहीं हो, लेकिन कश्मीरी मीडिया कुछ वामपंथी नेताओं को उतनी ही तवज्जो देता है, जितनी दूसरे मुखर अलगाववादी नेताओं को। इस लिहाज़ से मोटे तौर पर माना जा सकता है घाटी में 60 से ज़्यादा धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक संगठन ज़्यादा सक्रिय हैं। राजनैतिक संगठनों में बीजेपी को छोड़कर बाक़ी सभी संगठन अलगाववादियों के असर में दिखाई देते हैं। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी जम्मू कश्मीर सरकार में शामिल है, लिहाज़ा फिलहाल अलगाववाद से सावधानीपूर्वक दूरी बनाकर रखना उसकी सियासी मजबूरी है। ऐसे में हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस की वहां क्या हैसियत है, यह समझना मुश्किल नहीं है।

कुल मिलाकर कश्मीर में आतंकवादियों के सफ़ाए के साथ ही सीमा और एलओसी के पार घुसपैठ पर पैनी नज़र रखी जा रही है। यह आतंक से जंग का निर्णायक मोड़ है। सरकार ने यह भी साफ़ कर दिया है कि जिनके ख़िलाफ़ देश-विरोधी गतिविधियों के सुबूत नहीं हैं, वे भारतीय संविधान के दायरे में बिना शर्त बातचीत कर सकते हैं। पाकिस्तान की गोद में बैठकर बातचीत की मंशा भारत कभी पूरी नहीं कर सकता।

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